नई दिल्ली, 28 जून। सुप्रीम कोर्ट ने भ्रष्टाचार के मामलों में दोषी पाए गए लोकसेवकों की सजा पर रोक लगाने की प्रवृत्ति पर कड़ा रुख अपनाते हुए स्पष्ट किया है कि ऐसी राहत न्याय व्यवस्था के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है। जस्टिस संदीप मेहता और जस्टिस प्रसन्ना बी. वराले की डिवीजन बेंच ने शुक्रवार को एक अहम फैसले में कहा कि भ्रष्टाचार जैसे गंभीर अपराधों में दोषियों की सजा पर रोक से जनविश्वास को गहरी ठेस पहुंचती है।
गुजरात हाई कोर्ट का फैसला बरकरार
कोर्ट ने यह टिप्पणी एक लोकसेवक की याचिका खारिज करते हुए दी, जिसने गुजरात हाई कोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें उसकी सजा को तो अस्थायी रूप से निलंबित किया गया था लेकिन दोषसिद्धि पर कोई रोक नहीं लगाई गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के इस फैसले को पूरी तरह उचित बताया और कहा कि इसमें हस्तक्षेप की कोई जरूरत नहीं है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला उस लोकसेवक से जुड़ा है जिसे भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (PC Act) की धाराओं 7, 12, 13(1)(D) और 13(2) के तहत दोषी पाया गया था। निचली अदालत ने उसे दो अलग-अलग मामलों में कुल पांच वर्ष की कठोर सजा और जुर्माने की सजा सुनाई थी। इसके खिलाफ अपील करते हुए उसने गुजरात हाई कोर्ट से सजा पर स्थगन की मांग की थी।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
डिवीजन बेंच ने स्पष्ट शब्दों में कहा, “भ्रष्टाचार जैसे अपराधों में दोषी लोकसेवकों को सजा से राहत देना न्याय प्रक्रिया के मूल स्वरूप को नुकसान पहुंचाता है और यह न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध है।” कोर्ट ने यह भी जोड़ा कि इस विषय में पहले भी शीर्ष अदालत अपनी सख्त नीति स्पष्ट कर चुकी है।
कानूनी संकेत क्या है?
इस फैसले से साफ है कि भ्रष्टाचार में दोषी पाए गए अधिकारियों के लिए अदालतों से राहत पाना अब और कठिन होगा। सुप्रीम कोर्ट ने देश की न्यायपालिका को एक बार फिर स्पष्ट संकेत दिया है कि ऐसे मामलों में किसी प्रकार की नरमी, समाज और कानून दोनों के लिए घातक होगी।
यह फैसला आने वाले समय में भ्रष्टाचार के खिलाफ कानूनी लड़ाई को और सशक्त बनाने में मील का पत्थर साबित हो सकता है।