20 सालों से बंधक जमीन, मुआवजा और पुनर्वास की प्रक्रिया पर उठे सवाल


छत्तीसगढ़/कोरबा (CG ई खबर): 
कोरबा जिले में भूमि अधिग्रहण, मुआवजा और पुनर्वास की प्रक्रियाओं को लेकर एक बार फिर से बड़ा विवाद खड़ा हो गया है। सवाल यह उठ रहा है कि आखिर कलेक्टर लोकसेवक हैं या कारपोरेट हितैषी?

दरअसल, 2004 में किए गए भूमि अधिग्रहण को 20 साल बीत जाने के बावजूद न तो रोजगार मिला, न ही पुनर्वास स्थल की व्यवस्था हो सकी। प्रभावित ग्रामीणों का आरोप है कि शासन-प्रशासन की लापरवाही और कंपनियों की दबंगई के कारण उन्हें अब तक उनके अधिकारों से वंचित रखा गया है।

इसी बीच, कोरबा कलेक्टर अजीत वसंत ने एसईसीएल प्रभावित क्षेत्रों में नई कार्यप्रणाली लागू करने का निर्देश जारी किया है। इसमें कहा गया है कि अब भूमि अर्जन के बाद परिसंपत्तियों का सर्वे ड्रोन/सैटेलाइट तकनीक से होगा। साथ ही, जीपीएस आधारित जियो-टैगिंग और वीडियोग्राफी अनिवार्य होगी।

कलेक्टर ने स्पष्ट किया कि —

  • कोल बियरिंग एक्ट 1957 की धारा 4 (1) के बाद तुरंत ड्रोन सर्वे कराया जाएगा।
  • सर्वे संयुक्त टीम द्वारा किया जाएगा, जिसमें राजस्व अधिकारी और एसईसीएल कर्मी शामिल होंगे।
  • केवल वैध स्वामियों की परिसंपत्तियों का आकलन होगा, अवैध निर्माण को सूची में नहीं जोड़ा जाएगा।
  • मुआवजा प्रक्रिया में पारदर्शिता और किसानों के हक की सुरक्षा सुनिश्चित की जाएगी।

यह कदम प्रशासन की ओर से पारदर्शिता बढ़ाने की पहल मानी जा रही है। लेकिन ग्रामीणों का कहना है कि यह केवल कागज़ी आश्वासन है, जबकि असली सवाल 20 साल से लंबित पड़े पुनर्वास और मुआवजा मामलों का है।

ग्रामीणों की पीड़ा और बड़े सवाल

प्रभावित किसानों का आरोप है कि –

  • उनकी जमीन 20 सालों से बंधक बनाकर रखी गई है।
  • मुआवजा और रोजगार के वादे पूरे नहीं हुए।
  • पैसों की कमी से इलाज न मिलने पर कई मौतें हुईं।
  • तीन पीढ़ियाँ प्रभावित हुईं, नए परिवारों के रहने-खाने की समस्या खड़ी हो गई।
  • आज भी बंदूक और पुलिस के बल पर गांव खाली कराने की कोशिश हो रही है।

ग्रामीणों ने यह भी याद दिलाया कि भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार अधिनियम 2013 की धारा 101 साफ कहती है कि अर्जित भूमि यदि 5 साल तक अनुपयोगी रहे तो मूल किसानों को वापस दी जानी चाहिए। लेकिन प्रशासन उद्योगों पर कार्यवाही करने की बजाय किसानों पर ही दबाव बना रहा है।

निष्कर्ष

कोरबा में यह मामला सिर्फ मुआवजे का नहीं, बल्कि न्याय और अधिकारों का है। 20 साल से लटके मामलों का हिसाब कौन देगा? ग्रामीणों के सवाल अब सीधे तौर पर प्रशासन की कार्यशैली और कारपोरेट गठजोड़ पर खड़े हो रहे हैं।

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